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प्र पर्व॑तस्य वृष॒भस्य॑ पृ॒ष्ठान्नाव॑श्चरन्ति स्व॒सिच॑ऽइया॒नाः। ताऽआव॑वृत्रन्नध॒रागुद॑क्ता॒ऽअहिं॑ बु॒ध्न्य᳕मनु॒ रीय॑माणाः। विष्णो॑र्वि॒क्रम॑णमसि॒ विष्णो॒र्विक्रा॑न्तमसि॒ विष्णोः॑ क्रा॒न्तम॑सि॒ ॥१९॥

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पद पाठ

प्र। पर्व॑तस्य। वृ॒ष॒भस्य॑। पृ॒ष्ठात्। नावः॑। च॒र॒न्ति॒। स्व॒सिच॒ इति॑ स्व॒ऽसिचः॑। इया॒नाः। ताः। आ। अ॒व॒वृ॒त्र॒न्। अ॒ध॒राक्। उद॑क्ता॒ इत्युत्ऽअ॑क्ताः। अहि॑म्। बु॒ध्न्य᳖म्। अनु॑। रीय॑माणाः। विष्णोः॑। वि॒क्रम॑ण॒मिति॑ वि॒ऽक्रम॑णम्। अ॒सि॒। विष्णोः॑। विक्रा॑न्त॒मिति॒ विऽक्रा॑न्तम्। अ॒सि॒। विष्णोः॑। क्रा॒न्तम्। अ॒सि॒ ॥१९॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:19


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर इस जगत् में राजा और प्रजाजनों को किस प्रकार के यान बनाने चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजा के कारीगर पुरुष ! जो तू (स्वसिचः) जिनको अपने लोग जल से सींचते हैं, (इयानाः) चलते हुए (उदक्ताः) फिर-फिर ऊपर को जावें (अहिम्, बुध्न्यम्) अन्तरिक्ष में रहनेवाले मेघ के (अनुरीयमाणाः) पीछे-पीछे चलाने से चलते हुए (नावः) समुद्र के ऊपर नौकाओं के समान चलते हुए विमान (वृषभस्य) वर्षा करनेहारे (पर्वतस्य) मेघ के (पृष्ठात्) ऊपर के भाग से (प्रचरन्ति) चलते हैं, जिनसे तू (विष्णोः) व्यापक ईश्वर के इस जगत् में (विक्रमणम्) पराक्रम सहित (असि) है, (विष्णोः) व्यापक वायु के बीच (विक्रान्तम्) अनेक प्रकार चलने हारा (असि) है और (विष्णोः) व्यापक बिजुली के बीच (क्रान्तम्) चलने का आधार (असि) है, जो (अधराक्) मेघ से नीचे (आववृत्रन्) मेघ के समान विचरते हैं, उन विमानादि यानों को तू सिद्ध कर ॥१९॥
भावार्थभाषाः - जैसे मेघ वर्ष के भूमि के तले को प्राप्त होके पुनः आकाश को प्राप्त होता है। वह जल नदियों में जाके पीछे समुद्र को प्राप्त होता है। जो जल के भीतर अर्थात् जिनके ऊपर-नीचे जल होता है, वैसे ही सब कारीगर लोगों को चाहिये कि विमानादि यानों और नौकाओं को बना के भूमि जल और आकाश मार्ग से अभीष्ट देशों में यथेष्ट जाना-आना करें। जब तक ऐसे यान नहीं बनाते, तब तक द्वीप-द्वीपान्तरों में कोई भी नहीं जा सकता। जैसे पक्षी अपने शरीररूप संघात को आकाश में उड़ा ले चलते हैं, वैसे चतुर कारीगर लोगों को चाहिये कि इस अपने शरीर आदि को यानों के द्वारा आकाश में फिरावें ॥१९॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरत्र राजप्रजाजनैः कीदृशानि यानानि रचनीयानीत्याह ॥

अन्वय:

(प्र) (पर्वतस्य) मेघस्य। पर्वत इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (वृषभस्य) वर्षकस्य (पृष्ठात्) उपरिभागात् (नावः) सागरोपरि नाव इव विमानानि (चरन्ति) (स्वसिचः) याः स्वैर्जनैर्जलेन सिच्यन्ते ताः (इयानाः) गन्त्र्यः (ताः) (आ) (अववृत्रन्) अर्वाचीनो वृत्र इवाचरन्, अत्राचारे सुबन्तात् क्विप् (अधराक्) मेघादधस्तात् (उदक्ताः) पुनरूर्ध्वं गच्छन्त्यः (अहिम्) मेघम् (बुध्न्यम्) बुध्नेऽन्तरिक्षे भवम् (अनु) पश्चात् (रीयमाणाः) चालनेन गच्छन्त्यः (विष्णोः) व्यापकस्येश्वरस्य (विक्रमणम्) विक्रमतेऽस्मिंस्तत् (असि) (विष्णोः) व्यापकस्य वायोः (विक्रान्तम्) विविधतया क्रान्तम् (असि) (विष्णोः) व्यापकस्य विद्युद्वस्तुनः (क्रान्तम्) क्रमाधिकरणम् (असि) ॥ अयं मन्त्रः (शत०५.४.२.५.६) व्याख्यातः ॥१९॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजशिल्पिन् ! यदि त्वया याः स्वसिच इयाना उदक्ता अहिं बुध्न्यमनुरीयमाणा नावो वृषभस्य प्रपर्वतस्य पृष्ठात् प्रचरन्ति याभिस्त्वं विष्णोर्विक्रान्तमसि, विष्णोर्विक्रमणमसि, विष्णोः क्रान्तमसि, या अधरागाववृत्रंस्तास्त्वं साध्नुहि ॥१९॥
भावार्थभाषाः - यथा मेघो वर्षित्वा भूमितलं प्राप्याकाशमाप्नोति, तज्जलं नदीर्गत्वाऽन्ततः समुद्रं प्राप्नोति, तत्पृष्ठे नावो गच्छन्ति। या अप्स्वन्तरर्थाद् यासामुपर्यधो जलं भवति तद्वत् सर्वैः शिल्पिभिर्विमानानि नावश्च यानानि रचयित्वा भूमिजलाऽन्तरिक्षमार्गेणाभीष्टे देशे गमनागमने यथेष्टे कार्य्ये। यावदेतानि न साध्नुवन्ति, तावद् द्वीपद्वीपान्तरं गन्तुं कश्चिदपि न शक्नोति, यथा पक्षिण इदं शरीरमयं संघातं गमयन्ति, तथैव विचक्षणैः शिल्पिभिरेतदाकाशं यानैर्विक्रमणीयम् ॥१९॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - मेघ भूमीवर बरसतो, ते जल नंतर नद्यांमधून वाहते, समुद्राला मिळते. त्यानन्तर ते पुन्हा आकाशात जाते. वर-खाली सर्व ठिकाणी जल असते. त्यामुळे सर्व कारागिरांनी विमान व नौका बनवाव्यात आणि भूमी, जल व आकाशमार्गे इच्छित देशांमध्ये जाणे-येणे करावे. जोपर्यंत अशी याने तयार होत नाहीत तोपर्यंत द्वीपद्वीपान्तरी कोणीही जाऊ शकत नाही. ज्याप्रमाणे पक्षी आकाशात विहार करतात त्याप्रमाणे चतुर तंत्रज्ञ लोकांनी आकाशात विहार करणारी याने तयार करावीत व त्यातून प्रवास करावा.